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 तुम्हें दिल ने पुकारा है
चले आओ ,चले आओ...

तुम्हें दिल ने पुकारा है
चले आओ ,चले आओ...
ना तरसाओ ,ना तड़पाओ.

चले आओ, चले आओ

हवा भी हो के निश्चल
सुन रही है ,टूटती सांसें
नज़र भी थक रही है
छोड़ ना बैठे कहीं आसें
है नाज़ुक दिल बहुत मेरा
जरा इस पर तरस खाओ
चले आओ ,चले आओ.....

खनक मेरी हंसी की
खो गयी जाने कहाँ जानां
रुके पलकों पे ,ना सीखा
यूँही अश्को ने बह जाना
हुई गुम मैं कहीं खुद में
मुझे तुम मुझसे मिलवाओ
चले आओ ,चले आओ......

ये मौसम ये हवाएं
छेड़ते हैं जब मेरी अलकें
तभी तुम चुपके आके
मूँद लेते हो मेरी पलकें
हकीक़त में बदल दो
ये तस्सवुर ,अब ना भरमाओ
चले आओ ,चले आओ......

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kumar vishvas kavita -Tum gajal ban gaye geet me dhal gaye- तुम ग़ज़ल बन गई, गीत में ढल गई

तुम ग़ज़ल बन गई, गीत में ढल गई मैं तुम्हें ढूँढने स्वर्ग के द्वार तक रोज आता रहा, रोज जाता रहा तुम ग़ज़ल बन गई, गीत में ढल गई मंच से में तुम्हें गुनगुनाता रहा जिन्दगी के सभी रास्ते एक थे सबकी मंजिल तुम्हारे चयन तक गई अप्रकाशित रहे पीर के उपनिषद् मन की गोपन कथाएँ नयन तक रहीं प्राण के पृष्ठ पर गीत की अल्पना तुम मिटाती रही मैं बनाता रहा तुम ग़ज़ल बन गई, गीत में ढल गई मंच से में तुम्हें गुनगुनाता रहा एक खामोश हलचल बनी जिन्दगी गहरा ठहरा जल बनी जिन्दगी तुम बिना जैसे महलों में बीता हुआ उर्मिला का कोई पल बनी जिन्दगी दृष्टि आकाश में आस का एक दिया तुम बुझती रही, मैं जलाता रहा तुम ग़ज़ल बन गई, गीत में ढल गई मंच से में तुम्हें गुनगुनाता रहा तुम चली गई तो मन अकेला हुआ सारी यादों का पुरजोर मेला हुआ कब भी लौटी नई खुशबुओं में सजी मन भी बेला हुआ तन भी बेला हुआ खुद के आघात पर व्यर्थ की बात पर रूठती तुम रही मैं मानता रहा तुम ग़ज़ल बन गई, गीत में ढल गई मंच से में तुम्हें गुनगुनाता रहा मैं तुम्हें ढूँढने स्वर्ग के द्वार तक रोज आता रहा, रोज जाता रहा

kumar vishvas-"तुम गये तुम्हारे साथ गया, अल्हड़ अन्तर का भोलापन।

 "तुम गये तुम्हारे साथ गया, अल्हड़ अन्तर का भोलापन। "तुम गये तुम्हारे साथ गया, अल्हड़ अन्तर का भोलापन। कच्चे-सपनों की नींद और, आँखों का सहज सलोनापन। जीवन की कोरों से दहकीं यौवन की अग्नि शिखाओं में, तुम अगन रहे, मैं मगन रहा, घर-बाहर की बाधाओं में, जो रूप-रूप भटकी होगी, वह पावन आस तुम्हारी थी। जो बूूंद-बूूंद तरसी होगी, वह आदिम प्यास तुम्हारी थी। तुम तो मेरी सारी प्यासे पनघट तक लाकर लौट गये, अब निपट-अकेलेपन पर हँस देता निर्मम जल का दर्पण। तुम गये तुम्हारे साथ गया अल्हड़ अन्तर का भोलापन यश -वैभव के ये ठाठ-बाट, अब सभी झमेले लगते हैं। पथ कितना भी हो भीड़ भरा दो पाँव अकेले लगते है हल करते -करते उलझ गया, भोली सी एक पहेली को, चुपचाप देखता रहता हूँ, सोने से मॅढ़ी हथेली को। जितना रोता तुम छोड़ गये, उससे ज्यादा हँसता हूँ अब पर इन्ही ठहाकों की गूजों में, बज उठता है खालीपन तुम गये तुम्हारे साथ गया, अल्हड़ अन्तर का भोलापन ।"(डा कुमार विश्वास)

kumar vishvas kavita- ho kal gati se pare chirantan- हो काल गति से परे चिरंतन,

हो काल गति से परे चिरंतन   हो काल गति से परे चिरंतन, अभी यहाँ थे अभी यही हो। कभी धरा पर कभी गगन में, कभी कहाँ थे कभी कहीं हो। तुम्हारी राधा को भान है तुम, सकल चराचर में हो समाये। बस एक मेरा है भाग्य मोहन, कि जिसमें होकर भी तुम नहीं हो। न द्वारका में मिलें बिराजे, बिरज की गलियों में भी नहीं हो। न योगियों के हो ध्यान में तुम, अहम जड़े ज्ञान में नहीं हो। तुम्हें ये जग ढूँढता है मोहन, मगर इसे ये खबर नहीं है। बस एक मेरा है भाग्य मोहन, अगर कहीं हो तो तुम यही हो।