उस पगली लड़की के बिन अमावस कि काली रातों में, दिल का दरवाज़ा खुलता है जब दर्द कि प्याली रातों में, ग़म आँसू के संग घुलता है जब पिछवाड़े के कमरे में, हम निपट अकेले होते हैं जब घड़ियाँ टिक-टिक चलती हैं, सब सोते हैं, हम रोते हैं जब बार-बार दोहराने से, सारी यादें चुक जाती हैं जब ऊँच-नीच समझाने में, माथे की नस दुख जाती हैं तब इक पगली लड़की के बिन, जीना ग़द्दारी लगता है पर उस पगली लड़की के बिन, मरना भी भारी लगता है जब पोथे खाली होते हैं, जब हर्फ़ सवाली होते हैं जब ग़ज़लें रास नहीं आतीं, अफ़साने गाली होते हैं जब बासी-फीकी धूप समेटे, दिन जल्दी ढल जाता है जब सूरज का लश्कर छत से, गलियों में देर से आता है जब जल्दी घर जाने की इच्छा, मन ही मन घुट जाती है जब दफ़्तर से घर लाने वाली, पहली बस छुट जाती है जब बेमन से खाना खाने पर, माँ गुस्सा हो जाती है जब लाख मना करने पर भी, कम्मो पढ़ने आ जाती है जब अपना मनचाहा हर काम, कोई लाचारी लगता है तब इक पगली लड़की के बिन, जीना ग़द्दारी लगता है पर उस पगली लड़की के बिन, मरना भी भारी लगता है जब कमरे में सन्नाटे की, आवाज़ सुनाई देती है जब दर्पण में आँ...
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